उत्तराखण्ड
विश्व पर्यावरण दिवस विशेष: चिपको आंदोलन, पर्यावरण का सच्चा रक्षक…
देहरादून: विश्व पर्यावरण दिवस के मौके पर हम आपको उत्तराखण्ड की उन संघर्षशील महिलाओं के बारे में बताएंगे जिनके आंदोलन ने वनों को सुरक्षित रखने के लिए भारत सरकार को तक झुकाया, जिसके बाद सरकार द्वारा हिमालयी वनों का कटान पर प्रतिबंध लगवाया गया। वनों को बचाने के लिए देवभूमि की देवियों ने अपनी जान की बाज़ी लगाते हुए, लकड़ी ठेकेदारों से जंगल को सुरक्षित रखने के लिए हरे-भरे पेड़ो पर चिपक कर उनकी रक्षा की, जिसे फिर चिपको आंदोलन का नाम दिया गया।
चिपको आंदोलन एक पर्यावरण-रक्षा का आंदोलन था। किसानों ने वृक्षों की कटाई का विरोध करने के लिए इसे शुरू किया था। इस आंदोलन की सबसे बड़ी बात यह थी कि उस समय पुरुषों के मुकाबले इसमें स्त्रियों ने भारी संख्या में भाग लिया था। यह आंदोलन तत्कालीन उत्तर प्रदेश के चमोली जिले में प्रारंभ हुआ। एक दशक के अंदर यह पूरे उत्तराखंड क्षेत्र में फैल गया। उत्तराखंड पहले यूपी का ही हिस्सा था। चिपको आंदोलन के नाम से ही स्पष्ट है कि तब जब भी कोई पेड़ों को काटने आता था तो आंदोलनकारी पेड़ों से चिपक जाते थे। चिपको आन्दोलन की शुरूआत 1973 में भारत के प्रसिद्ध पर्यावरणविद् स्व. सुन्दरलाल बहुगुणा, चण्डीप्रसाद भट्ट और गौरा देवी के नेतृत्व में हुई थी। उस समय अलकनंदा घाटी के मंडल गांव में लोगों ने चिपको आंदोलन शुरू किया।
1973 में वन विभाग के ठेकेदारों ने जंगलों के पेड़ों की कटाई शुरू कर दी थी। वनों को इस तरह कटते देख किसानों ने बड़ी संख्या में इसका विरोध किया और चिपको आंदोलन की शुरुआत हुई। इस आंदोलन की मुख्य उपलब्धि ये रही कि इसने केंद्रीय राजनीति के एजेंडे में पर्यावरण को एक बड़ा मुद्दा बना दिया था।
चिपको आंदोलन ने 1980 में तब एक बड़ी जीत हासिल की, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने प्रदेश के हिमालयी वनों में वृक्षों की कटाई पर 15 वर्षों के लिए रोक लगा दी। चिपको आंदोलन से प्रेरित होकर किसानों ने पर्यावरण की रक्षा के लिए देश के कई राज्यो में आंदोलन किये।