उत्तराखण्ड
पहाड़ की संस्कृति को बचाने को रणजीत रावत की मुहिम से जुड़े लोग, हुड़के की थाप पर मिलाए सुर से सुर…
सेलो दिया बितो हो धरती माता,
दैंणा है जाया हो भुमियां देवा,
दैंणा है जाया हो धरती माता,
हैंणा है जाया हो पंचनाम देवा,
सेवो द्यो बिदो भुम्याल देवा…
हुड़किया बौल के ये गीत अब पहाड़ की वादियों में सुनाई नहीं देते, लेकिन हमारी इस विशिष्ट लोक परंपरा को जीवित रखने के लिए अब भी समाज के कुछ जागरूक लोग प्रयास कर रहे हैं। जिनमें से एक है “प्रयास सेवा संस्था”… जो हमेशा से पहाड़ के उत्पाद, यहां के खान-पान, लोक कला और यहां की लुप्त हो रही अनोखी संस्कृति में फिर से दम भरने का प्रयास कर रही है। कोशिश है कि इस लोकसंस्कृति को जीवित रखा जाए और उसे विरासत के रूप में दूसरी पीढ़ी को दिया जाए।
इसी क्रम में प्रयास सेवा संस्था की ओर से रामनगर के मोतीनगर में “हुड़किया बौल” कार्यक्रम का दूसरी बार आयोजन किया गया, जिसमें स्थानीय लोगों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। उत्तराखंड कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष एवं पूर्व विधायक रंजीत रावत इस संस्था के संस्थापक हैं। उनके निवास स्थान पर कार्यक्रम आयोजित हुआ। जिसका उद्देश्य लोगों को अपनी विशिष्ट संस्कृति के प्रति जागरूक करना था।
मालूम हो कि उत्तराखंड कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष रंजीत रावत ने हमेशा से ही पहाड़ की संस्कृति को बचाने और बढ़ाने का काम किया है। पहाड़ी उत्पादों की देश-विदेश में ब्रांडिंग करनी हो या उनको सही बाजार उपलब्ध कराना, इसके लिए वह लगातार सक्रिय रहते हैं।
क्या है हुड़किया बौल
हुड़किया बौल हुड़का व बौल शब्द से बना है। जिसका मतलब है कई हाथों का सामूहिक रूप से कार्य करना। दरअसल, उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में धान की रोपाई व मडुवे की गोड़ाई के समय हुड़किया बौल गाए जाते हैं। पहले भूमि के देवता भूमियां, पानी के देवता इंद्र, छाया के देव मेघ की वंदना से शुरुआत होती है। फिर हास्य व वीर रस आधारित राजुला मालूशाही, सिदु-बिदु, जुमला बैराणी आदि पौराणिक गाथाएं गाई जाती हैं। हुड़के को थाम देता कलाकार गीत गाता है, जबकि रोपाई लगाती महिलाएं उसे दोहराती हैं। हुड़के की गमक और अपने बोलों से गीत गाने वाला कलाकार रोपाई के काम में फुर्ती लाने का प्रयास करता है। पहले ग्रामीण परिवेश में ये विशेष रूप से गाए जाते थे, लेकिन आधुनिकता की दौड़ में यह प्रथा कहीं खो सी गई है।