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उत्तराखंड- कुमाऊं की आराध्या देवी मां हाट कालिका के दर्शन मात्र से दूर हो जाते हैं कष्ट, यह है मान्यता…

उत्तराखंड – पूरे कुमाऊं में हाट कालिका के नाम से विख्यात गंगोलीहाट के महाकाली मंदिर की कहानी भी उसकी ख्याति के अनुरूप है, पांच हजार साल पूर्व लिखे गए स्कंद पुराण के मानसखंड में दारुकावन (गंगोलीहाट) स्थित देवी का विस्तार से वर्णन है, छठी सदी के अंत में भगवान शिव का अवतार माने जाने वाले जगत गुरु शंकराचार्य महाराज ने कूर्मांचल (कुमाऊं) भ्रमण के दौरान हाट कालिका की पुनर्स्थापना की थी, पिथौरागढ़ से लगभग 77 किलोमीटर की दूरी पर देवदार के घने वृक्षों के बीच स्थित है।

महाकाली मंदिर, गंगोलीहट में स्थित सबसे प्रसिद्ध तीर्थस्थल है (चौकोड़ी से 35 किमी.) आदिगुरु शंकराचार्य द्वारा इस स्थान को महाकाली शक्तिपीठ के लिए चुने जाने के बाद यह मंदिर अधिक विशिष्ट हो गया, देवी को प्रसन्न करने के लिए भक्त यहाँ बकरों और मेमनों की बलि देते हैं, ताकि उनकी मनोकामनाएँ पूरी हो जाए। यह मंदिर हाट कालिका के नाम से भी जाना जाता है, यहाँ पर प्रसिद्ध हाट कालिका मेला लगता है, उस समय यह जगह रंगों में डूब जाती है और चारों ओर ढोल की आवाज़ें होती हैं, यहाँ से 2 किमी. दूर स्थित चामुंडा मंदिर एक खूबसूरत तीर्थ है।

स्थानीय लोगों के अनुसार इस मंदिर के परिसर में देर रात के समय पवित्र आत्माएँ घूमती हैं, लोकोक्ति है कि यह शक्ति पीठ मां महिषासुर मर्दिनी की है, जनश्रुति है कि देवी और महिषासुर नामक राक्षस का युद्ध इसी स्थान पर हुआ था, जिसमें रक्तबीज और चंडमुंड नामक राक्षस मारे गये थे, स्थानीय बुजुर्गों ने बताया है कि रात्रि में कई बार देवी अपने गणों के साथ शोभायात्रा के रूप में मन्दिर में ढोल-नगाड़ों के साथ दिखाई पड़ती थी। इस जनपद में सबसे प्राचीन और प्रसिद्ध मन्दिर कालिका या महाकालिका का है, कलकत्ते के काली मन्दिर के सदृश ही इस क्षेत्र में मान्यता है। कहते हैं कि यहां देवी कभी-कभी रात्रि में कीर्ति-वागीश्वर महादेव को पुकारती थी उस वाणी को जो सुनता था उसकी तत्काल मृत्यु हो जाती थी।

इस कारण आस-पास के लोगों का पलायन शुरू हो गया और वे दूर जाकर बसने लगे थे, जब आदि गुरु शंकराचार्य ने आकर इसे दूसरे पत्थर से ढककर कीलित कर दिया, तब से देवी का पुकारना बन्द हो गया था। तत्पश्चात लोगों का वहां पुनः आगमन हुआ। रावल जाति के पुजारियों के परिवार पुनः आकर मन्दिर के निकट बस गये अब भी कुछ लोगों का विश्वास है कि अर्ध रात्रि के उपरान्त देवी का डोला निकलता है, किसी बड़े भाग्यशाली तथा आस्तिक व्यक्ति को बारात जाते समय के रणसिंघ तथा दमाऊ का शब्द और कभी सिंह का गर्जन भी सुनाई पड़ता है।

ऐसा भी देखा गया है कि रात्रि में मन्दिर के कपाट बन्द होते समय पुजारी देवी की शैय्या लगाता है और प्रातः आने वाले दर्शनार्थी उस पर सिलवटें पड़ी देखते है यहां वैसे तो हर अष्ठमी को बड़ी संख्या में लोग आते हैं पर चैत्र व आश्विन की नव-रात्रियों में विशेषतः अष्टमियों को विशेष मेला होता है। गंगोलीहाट के मणकोटी राजा राम चन्द्र देव ने एक गन्ध-विहार की स्थापना करवाई जिसके निर्मित होने में 14 वर्ष लगे थे, इसने कुमाऊँ में लगभग 400 वर्ष तक शीला का जो व्यापक प्रचार किया था, दुर्भाग्यवश उसका इतिहास भी अभी तक अंधकार में है, मन्दिर के मार्ग में एक प्राचीन नौला है, जिसे जान्हवी का नौला कहते है इस नौले का निर्माण राजा रामचन्द्र देव की मां ने करवाया था, अतः यह उन्ही के नाम पर प्रसिद्ध हुआ। इस नौले की दीवार पर उत्कीर्ण लेख में गन्ध विहार शब्द का प्रयोग विशेष ध्यान देने योग्य है, गंध विहार विश्व विद्यालय के लिये प्रयुक्त प्राचीन शब्द है एक और शब्द ‘‘सोमती’’ पढ़ने में आया।

लेखों के अनुसार गन्ध विहार का निर्माण संवत् 1321 (सन् 1264) में आरम्भ होकर संवत 1355 (सन् 1278) में पूर्ण हुआ. नौले के पास जो प्राचीन मन्दिर है वही लेखों में वर्णित प्राचीन गन्ध-विहार के अवशिष्ट खण्डहर हैं, इसमें राजा राम चन्द्र देव उनके पुत्र लिंग राज देव तथा पौत्र हम्मीर देव ने महाराष्ट्र,काशी और नेपाल से जिन विद्वानों को अध्यापन के लिये बुलाकर गंगोलीहाट के समीप बसाया उनके वंशज ही अब पन्त, जोशी, पाठक, कोठारी, और उप्रेती जाति के ब्राह्मण कहलाते हैं।

इसी समय जिया रानी के यशस्वी और पराक्रमी पुत्र पुरुषोत्तम सिंह (पौन राजा) ने बौद्व गया में भी गन्ध कुटी का निर्माण इस कामना से करवाया था कि अनेक कोटि उससे शिक्षित हो सकेंगे ‘‘शिक्षा कोटि विचक्षणः स्ववहितोधियाय निष्ठा परः’’ गंगोलीहाट के मन्दिर अत्यन्त प्राचीन है, इनमें दो वर्गो-जंगम बाबा का अखाड़ा व राम मन्दिर के मंदिर ही अब शेष बचे हैं, इनमें सबसे बड़ा 15 फीट ऊँचा चतुर्भुजी विष्णु का मन्दिर है, यह पूर्वाभिमुख है। बाजार से उत्तर की ओर लगभग 15 गज की दूरी पर राम मन्दिर समूह में पांच छोटे मन्दिर है, जो भी दक्षिण की ओर प्रवेश द्वार वाले हैं।

इनमें चौथे विष्णु व एक में हनुमान की मूर्ति है, इसी मन्दिर के अन्तर्गत त्रिपुरा देवी मन्दिर में नन्दाष्टमी को कालीगाड़ मन्दिर में आज भी महिलाओं के लिये प्रवेश निषिद्ध है, यहां के कोटगाड़ी (कोटेश्वर) मन्दिर में आर्तजन तब गुहार लगाते है जब अन्यत्र कहीं से भी न्याय मिलने की आशा शेष नही रह जाती, देवी की पूजा सिन्धु सभ्यता की प्रमुख विशेषता रही है, ‘मार्कण्डेय पुराण’ देवी की उत्पत्ति मूल रूप से हिमालय में मानता है ‘‘कालिकेति समारद्वाता हिमाचल कृताश्रया’’

इससे स्पष्ट होता है कि आर्यों ने कूर्मांचल से ही देवी का पूजन सीखा होगा, डॉ. गोखले के अनुसार सिन्धुवासी देवी को घर और गांव की रक्षा करने वाली मानते थे, समय-समय पर जीर्णोद्वार होते रहने के कारण अब यह मन्दिर अपनी मौलिकता खोता जा रहा है, इसकी दीवारों तथा छत सभी ने काफी आधुनिक रूप ले लिया है पर इसमें स्थापित प्रतिमाओं और कहीं-कहीं पर दीवारों को देखकर इसकी प्राचीनता की झलक मिलती है। मान्यता में यह कोलकाता की काली के ही समकक्ष है, आज भी यहां प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु आते रहते हैं।
साभार ‘काफल ट्री’

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